Friday, June 28, 2013

ज़फ़र ---घर में वो मौजूद है और मैं घर-घर ढूंढता फिरता हूँ

हाल नहीं  कुछ  खुलता मेरा  कौन हूँ , क्या  हूँ , कैसा  हूँ 
मस्त   हूँ  या  हुशियारों   में  हूँ  , नादां  हूँ  , या  दाना  हूँ 
कान  से  सबकी सुनता हूँ और मुंह से कुछ नहीं कहता हूँ 
होश  भी  है  बेहोश  भी हूँ  कुछ  जागता हूँ  कुछ सोता हूँ 
कैसा रंज और कैसी  राहत किस  की शादी किस का ग़म 
यह  भी  नहीं  मालूम  मुझे  मैं  जीता  हूँ  या  मरता   हूँ 
कारे - दीं  कुछ  बन   नहीं   आता  दावा  है  दींदारी   का 
दुनिया  से  बेजार  हूँ लेकिन रखता  ख्वाहिशे - दुनिया हूँ 
यार  हो  मेरे  दिल  में  और  मैं  का'बा  में  बुतखाने   में 
घर  में  वो  मौजूद है  और  मैं घर - घर ढूंढता फिरता हूँ 
                                                                                -ज़फ़र 

Tuesday, June 25, 2013

प्रवीण पाण्डेय - जीने का अधिकार मिला है

जीने का अधिकार मिला है

एकाकी कक्षों से निर्मित, भीड़ भरा संसार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।

सोचा, मन में प्यार समेटे, बाट जोहते जन होंगे,
मर्यादा में डूबे, समुचित, शिष्ट, शान्त उपक्रम होंगे,
यात्रा में विश्रांत देखकर, मन में संवेदन होगा,
दुविधा को विश्राम पूर्णत, नहीं कहीं कुछ भ्रम होगा,
नहीं हृदय-प्रत्याशा को पर सहज कोई आकार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।१।।

सम्बन्धों के व्यूह-जाल में, द्वार निरन्तर पाये हमने,
घर, समाज फिर देश, मनुजता, मिले सभी जीवन के पथ में,
पर पाया सबकी आँखों में, प्रश्न अधिक, उत्तर कम थे,
जीते आये रिक्त, अकेले, आशान्वित फिर भी हम थे,
प्रस्तुत पट पर प्रश्न प्रतीक्षित, प्रतिध्वनि का विस्तार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।२।।

जिसने जब भी जितना चाहा, पूर्ण कसौटी पर तौला है,
सबने अपनी राय प्रकट की, जो चाहा, जैसे बोला है,
संस्कारकृत सुहृद भाव का, जब चाहा, अनुदान लिया,
पृथक भाव को पर समाज ने, किञ्चित ही सम्मान दिया,
पहले निर्मम चोटें खायीं, फिर ममता-उपकार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।३।।

जीवन का आकार बिखरता, जीवन के गलियारों में,
सहजीवन की प्रखर-प्रेरणा, जकड़ गयी अधिकारों में,
परकर्मों की नींव, स्वयं को स्थापित करता हर जन,
लक्ष्यों की अनुप्राप्ति, जुटाते रहते हैं अनुचित साधन,
जाने-पहचाने गलियारे, किन्तु बन्द हर द्वार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।४।। 

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Monday, June 24, 2013

मुकेश कुमार सिन्हा -- दूरियां

दूरियां
हर एक से बना कर रखिये
अपनों के दरमियाँ भी
थोड़ा फासला तो रखिए
.
दोस्त या दुश्मन
की परख तो रखिये
दिल की किताब में
हर एक का हिसाब तो रखिये
.
जिंदगी
में है कई रंज-औ-गम
पर कुछ गमो को
हमराज बना कर तो रखिये
.
दोस्ती है
तो गुफ्त-गु और दिल-ऐ-बयां भी कीजिये
मगर
कुछ तो पर्दा भी रखिये
.
दिल है तो
गमो का बादल भी होगा
पर खुशियों के बरसात
बरसा कर के तो रखिये
                         - मुकेश कुमार सिन्हा 

Wednesday, June 19, 2013

आशीष राय - बधशाला

यह कुटुंब, धन, धाम कहाँ है , अरे साथ जाने वाला
जिसके पीछे तूने पागल , क्या अनर्थ न कर डाला
नित्य देखता है तू फिर भी , जान बूझकर फंसता है
"जग जाने " पर ही यह जग है , सो जाने पर बधशाला.

जितना ऊँचा उठना चाहे , उठ जाये उठने वाला
नभ चुम्बी इन प्रासादों को , अंत गर्त में ही डाला
जहाँ हिमालय आज खड़ा है , वहां सिधु लहराता था
लेती है जब करवट धरती, खुल जाती है बधशाला

खिसक हिमालय पड़े सिन्धु में , लग जाये भीषण ज्वाला
गिरे ! टूट नक्षत्र भूमि नभ , टुकड़े टुकड़े कर डाला
अरे कभी मरघट में जाकर , सुना नहीं प्रलयंकर गान
ब्रम्ह सत्य है ! और सत्य है , विश्व नहीं ये बधशाला
                                                                -आशीष राय 

Tuesday, June 18, 2013

"दिनकर" ........ उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!

उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
बरसो, बरसो, भरें रंग से निखिल प्राण-मन हे!

भींगे भुवन सुधा-वर्षण में,
उगे इन्द्र-धनुषी मन-मन में;

भूले क्षण भर व्यथा समर-जर्जर विषण्ण जन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!

गरजे गुरु-गंभीर घनाली,
प्रमुदित उड़ें मराल-मराली,

खुलें जगत के जड़ित-अन्ध रस के वातायन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!

बरसे रिम-झिम रंग गगन से,
भींगे स्वप्न निकल मन-मन से,

करे कल्पना की तरंग पर मानव नर्तन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!

जय हो, रंजित धनुष बढ़ाओ,
भू को नभ के साथ मिलाओ,

भरो, भरो, भू की श्रुति में निज अनुरंजन स्वन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!

"दिनकर"

Friday, June 7, 2013

ज़फ़र --- बराबर अपना है हर एक यार से इख़लास

बराबर अपना  है  हर एक  यार से इख़लास 
न ये कि चार से नफरत तो चार से इख़लास 
जो  मेरा  दुश्मने-जाँ  है वो है उसी का दोस्त 
करे है कब वो  किसी  दोस्तदार से इख़लास 
न  बोल  मुझसे  तू  नासेह  कि मैं हूँ दीवाना 
तू  होशियार  है  कर  होशियार से  इख़लास 
बगैर  रंजो-मुसीबत  सिवाय  हसरतो-यास 
रखे  है  कौन  दिले - बेक़रार  से   इख़लास 
गुरुर  था  हमें  क्या  अपनी  पारसाई  का !
न था हमारा जब इस बादा-ख़्वार से इख़लास 
जहाँ में जितने कि हैं बदनसीबो-बदकिस्मत 
"ज़फ़र"वो रखते हैं इस बद-शुआर से इख़लास 
                                                           -ज़फ़र