सुना है,
तुम लिखते भी हो,
उसने पूछा था |
हूँ !
मैंने कहा था |
कुछ मेरे पे लिखो,
प्यार भरी आँखों,
से गुदगुदाया,
तनिक मुझे,
और उंगलियाँ,
पकड़ ली थी मेरी |
गोया,
उनमें से हर्फ़ निकलेंगे अभी,
और वो उन्हें,
अपने इर्द गिर्द,
समेट लेगी,
और बना लेगी,
लिबास,
एक नज़्म का |
मैंने कहा था,
हाँ,पर उसके लिए,
तुम्हे जानना होगा, मुझे |
पर,
मै जब भी,
कोशिश करता हूँ,
जानने की तुमको,
तुम,
मेरे ख्यालों की ही,
हकीकत सी लगती हो |
तुम पे कैसे लिखूं,
तुम तो 'स्टेंसिल' हो,
मेरी नज्मों की,
मेरी ग़ज़लों की |
समय तुमसे ही,
छन कर,
आता है,
और,
छपता सा जाता है,
सफों पे,
ज़िन्दगी के मेरी |
तुम तो खुद में,
एक लफ्ज़ हो,
इबारत हो,
इबारत हो,
तबस्सुम हो,
एक मिज़ाज हो |
जब भी लौटा हूँ,
पास से तेरे,
कभी नज़्म,
तो,
कभी ग़ज़ल,
ही,
छपी मिली है,
दिल पे मेरे |
तुम पे,
क्या लिखूं,
और कैसे लिखूं ? ............... अमित श्रीवास्तव
वाह !!! क्या बात है...:)
ReplyDeleteवाह वाह वाह ........बस वाह क्या बात है :) )))
ReplyDeleteबहुत बहुत खूबसूरत रचना ....
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