Wednesday, June 11, 2014

कैफ़ी आज़मी ..... बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये

बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं
अपनी यादों में बसा रक्खे हैं

दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो
कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं
वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं
बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुये सीने में सजा लेंगे उन्हें
गर खुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उस के बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद
तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ क्या
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उस की न इबादत होगी
वह्शते-बुत शिकनी देख के हैरान हूँ मैं
बुत-परस्ती मिरा शेवा है कि इंसान हूँ मैं
इक न इक बुत तो हर इक दिल में छिपा होता है
उस के सौ नामों में इक नाम खुदा होता 
                                            .........कैफ़ी आज़मी

Monday, June 2, 2014

~~ समीर लाल ’समीर’ ~~ तुमको सलाम लिखता हूँ

याद करो वो रात..
वो आखिरी मुलाकात..
जब थामते हुए मेरा हाथ
हाथों में अपने
कहा था तुमने...
लिख देती हूँ
मैं अपना नाम
हथेली पर तुम्हारी
सांसों से अपनी ...
फिर ...
कर दी थी तुमने..
अपनी हथेली सामने मेरे ..
कि लिख दूँ मैं भी
अपना नाम उस पर
सांसों से अपनी.....
कहा था तुमने...
सांसों से लिखी इबारत..
कभी मिटती नहीं..
कभी धुलती नहीं..
चाहें आसूँओं का सैलाब भी
उतर आये उन पर..
वो दर्ज रहती हैं
खुशबू बनी हरदम.. हर लम्हा...
साथ में हमारे.....
आज बरसों बाद जब...
बांचने को कल अपना...
खोल दी है मैने.... मुट्ठी अपनी.....
तब...हथेली से उठी...
उसी खुशबू के आगोश में...
ए जिन्दगी!!..
एक बार फिर .....अपने बहुत करीब....
अहसासा है तुम्हें!!....
“मैं ज़िन्दगी की किताब में, यूँ अपना पसंदीदा कलाम लिखता हूँ..
लिख देता हूँ तुम्हारा नाम, और फिर तुमको सलाम लिखता हूँ......”