Thursday, April 19, 2012

बे-सियाही न चला काम कलम का ऐ 'ज़ौक'

हम  हैं  और  साया तीरे  कूचे  की दीवारों का 
काम जन्नत में है क्या हम से गुनहगारों का 

मोहतसिब दुश्मने-जां गरचे है मयख्वारों का 
दीजै  इक  जाम  तो  है  यार  अभी  यारों का 

हाए वो आशिके-जांबाज़ कि इक मुद्दत तक 
ह्द्फे - तीर१  तुझ  से  कमांदारों   का 

चर्ख  पर२  बैठ  रहा  जान  बचा  कर  ईसा 
हो  सका  जब  न  मुदावा३  तेरे बीमारों का 

बे-सियाही न चला काम कलम का ऐ 'ज़ौक'
रू-सियाही४ ,सरो-सामां है सियह्कारों५  का 
                                                   -ज़ौक 
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१ : लक्ष्य 
२ :आकाश पर
३ :इलाज़
४ :बदनामी
५ :पापियों का 

3 comments:

  1. आपके पोस्ट पर आना सार्थक हुआ । प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे पोस्ट पर आपका आमंत्रण है । धन्यवाद ।

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  2. बहुत ही सुंदर भाव...सुन्दर प्रस्तुति...हार्दिक बधाई...

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