स्त्री के भीतर
उग आती हैं और एक स्त्री
या अनेक स्त्रियाँ.....
जब वो अकेली होती है
और दर्द असह्य हो जाता है |
फिर सब मिल कर बाँट लेती हैं दुःख !
उग आती हैं और एक स्त्री
या अनेक स्त्रियाँ.....
जब वो अकेली होती है
और दर्द असह्य हो जाता है |
फिर सब मिल कर बाँट लेती हैं दुःख !
औरत अपने भीतर उगा लेती है एक बच्चा
और खेलती हैं बच्चों के साथ
खिलखिलाती है,तुतलाती है
घुलमिल कर !
रूपांतरण की ये कला ईश्वर प्रदत्त है |
और खेलती हैं बच्चों के साथ
खिलखिलाती है,तुतलाती है
घुलमिल कर !
रूपांतरण की ये कला ईश्वर प्रदत्त है |
कभी कभी
एक पुरुष भी उग आया करता है
स्त्री के भीतर
जब बाहर के पुरुषों द्वारा
तिरस्कृत की जाती है |
तब वो सशक्त होती है उनकी तरह !
एक पुरुष भी उग आया करता है
स्त्री के भीतर
जब बाहर के पुरुषों द्वारा
तिरस्कृत की जाती है |
तब वो सशक्त होती है उनकी तरह !
सदियों से
इस तरह कायम है
स्त्रियों का अस्तित्व !
कि उनके भीतर की उपजाऊ मिट्टी में
उम्मीद के बीज हैं बहुत
और नमी है काफी !
~अनुलता ~
इस तरह कायम है
स्त्रियों का अस्तित्व !
कि उनके भीतर की उपजाऊ मिट्टी में
उम्मीद के बीज हैं बहुत
और नमी है काफी !
~अनुलता ~
शुक्रिया निवेदिता.....
ReplyDeleteये कविता मेरी भी पसंदीदा है !
सस्नेह
अनु
दोनों की पसंद एक सी :)
Deleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जीना सब को नहीं आता - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर ...grt poem
ReplyDeletetoo good
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