प्रश्न कुछ भी पूछता हूँ,
उत्तरों की विविध नदियाँ,
ज्ञान का विस्तार तज कर,
मात्र तुझमें सिमटती हैं ।
नेत्र से कुछ ढूँढ़ता हूँ,
दृष्टियों की तीक्ष्ण धारें,
अन्य सब आसार तजकर,
तुम्हीं पर कब से टिकी हैं ।
जब कभी कुछ सोचता हूँ,
विचारों की दिशा सारी,
व्यर्थ का संसार तजकर,
तुम्हीं पर आ अटकती हैं ।
नहीं खुद को रोकता हूँ,
हृदय के खाली भवन में,
जब तुम्हारी ही तरंगें,
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