Wednesday, October 10, 2012

तप रे !

तप रे , मधुर-मधुर मन !

विश्व-वेदना में तप प्रतिपल ,
जग-जीवन की ज्वाला में गल ,
बन अकलुष ,उज्ज्वल औ कोमल 
तप रे ,विधुर-विधुर मन !

अपने सजल-स्वर्ण से पावन 
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम 
स्थापित कर जग में अपनापन ,
ढल रे , ढल आतुर मन !

तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन 
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन 
निज अरूप में भर स्वरूप , मन 
मूर्तिमान बन निर्धन !
गल रे , गल निष्ठुर मन ! 
                 -सुमित्रानन्दन पन्त 


7 comments:

  1. पन्त जी की कविता पढवाने के लिए आभार . कविता के बारे में कुछ कहना सूरज को दीपक दिखाने जैसा होगा .

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  2. खूबसूरत..........

    शुक्रिया निवेदिता.
    सस्नेह
    अनु

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  3. पंत जी को पढ़ना ऐसा लगता है कि आज के संदर्भ मे लिखी गई है।
    बहुत सुंदर रचना है।

    विश्व-वेदना में तप प्रतिपल ,
    जग-जीवन की ज्वाला में गल ,
    बन अकलुष ,उज्ज्वल औ कोमल
    तप रे ,विधुर-विधुर मन !

    आपका आभार पंत जी की याद ताजा कराने के लिए

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  4. उत्कृष्ट प्रस्तुति...आभार

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  5. पंत जी की रचना से साक्षात्कार करवाने के लिए आभार |

    नई पोस्ट:- ओ कलम !!

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  6. इस उत्‍कृष्‍ट प्रस्‍तुति के लिए आभार

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