Sunday, November 24, 2013

प्रवीण पाण्डेय .......... जलकर ढहना कहाँ रुका है


आशा नहीं पिरोना आता, धैर्य नहीं तब खोना आता,

नहीं कहीं कुछ पीड़ा होती, यदि घर जाकर सोना आता,

मन को कितना ही समझाया, प्रचलित हर सिद्धान्त बताया,
सागर में डूबे उतराते, मूढ़ों का दृष्टान्त दिखाया,

औरों का अपनापन देखा, अपनों का आश्वासन देखा,
घर समाज के चक्कर नित ही, कोल्हू पिरते जीवन देखा,

अधिकारों की होड़ मची थी, जी लेने की दौड़ लगी थी,
भाँग चढ़ाये नाच रहे सब, ढोलक परदे फोड़ बजी थी,

आँखें भूखी, धन का सपना, चमचम सिक्कों की संरचना,
सुख पाने थे कितने, फिर भी, अनुपातों से पहले थकना,

सबके अपने महल बड़े हैं, चौड़ा सीना तान खड़े हैं,
सुनो सभी की, सबकी मानो, मुकुटों में भगवान मढ़े हैं,

जिनको कल तक अंधा देखा, जिनको कल तक नंगा देखा,
आज उन्हीं की स्तुति गा लो, उनके हाथों झण्डा देखा,

सत्य वही जो कोलाहल है, शक्तियुक्त अब संचालक है,
जिसने धन के तोते पाले, वह भविष्य है, वह पालक है,

आँसू बहते, खून बह रहा, समय बड़ा गतिपूर्ण बह रहा,
आज शान्ति के शब्द न बोलो, आज समय का शून्य बह रहा,

आज नहीं यदि कह पायेगा, मन स्थिर न रह पायेगा,
जीवन बहुत झुलस जायेंगे, यदि लावा न बह पायेगा,

मन का कहना कहाँ रुका है, मदमत बहना कहाँ रुका है,
हम हैं मोम, पिघल जायेंगे, जलकर ढहना कहाँ रुका है?
                                ............ प्रवीण पाण्डेय

4 comments:

  1. बहुत बढ़िया...
    साझा करने का शुक्रिया निवेदिता
    सस्नेह
    अनु

    ReplyDelete

  2. सत्य वही जो कोलाहल है, शक्तियुक्त अब संचालक है,
    जिसने धन के तोते पाले, वह भविष्य है, वह पालक है,
    अच्छी और सार्थक रचना |

    ReplyDelete
  3. स्वयं अपनी रचना पढ़ता हूँ तो पुनर्प्रेरित हो जाता हूँ।

    ReplyDelete