Sunday, January 19, 2014

हरिवंश राय बच्चन ---- काँटा , काँटा ही कैसे रह गया



मेरी बंद मुठियाँ देखकर
जिस-जिस ने मुझसे पूछा,
"इनमें क्या है ?"
मैंने ईमानदारी से बताया ,
"इनमें क्या है ?
इनमें कदम्ब का फूल है। "
और लोगों ने इस पर
सहज विश्वास कर लिया।

वो तो जब
मेरी मुट्ठियों से
रक्त कि बूंदे चूने लगीं
तब लोगों ने मुझे अविश्वास कि नज़रों से घूरा ,
मुझसे कहा ,
"मुट्ठियाँ तो खोलो। "
और जब मैंने मुट्ठियाँ खोलीं
तो उनमें
कंटकीला धतूरे का फल निकला !

मैं शरमाया ,
मेरा झूठ पकड़ा गया ,
मुझे अपने पर आश्चर्य हुआ ,
क्यूंकि मैंने अपनी आखें खोलकर
कदम्ब का फूल अपनी मुट्ठियों में लिया था।

शायद मैं अपनी भावातिशयता में
काँटे को फूल समझा ,
पर काँटा , काँटा ही कैसे रह गया ,
फूल क्यूँ नहीं नहीं बना ,
उसने तो एक कवि का रक्त पिया था। .....  हरिवंश राय बच्चन

1 comment:

  1. बहुत अच्छी रचना है आपके संकलन में |
    आशा

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