Thursday, January 6, 2011

अश्वमेध यज्ञ

एक चैत की पूनम थी
कि दूधिया श्वेत मेरे इश्क का घोड़ा
देश और विदेश में विचरने चला
सारा शरीर सच -सा श्वेत
और श्यामकर्ण विरही रंग के ।
एक स्वर्णपत्र उस के मस्तक पर
’यह दिग्विजय का घोड़ा---
कोई सबल है तो इसे पकड़े और जीते’
और जैसे इस यज्ञ का एक नियम है
वह जहाँ भी ठहरा मैं ने गीत दान किये
और कई जगह हवन रचा
सो जो भी जीतने को आया वह हारा ।
आज उमर की अवधि चुक गई है
यह सही - सलामत मेरे पास लौटा है,
पर कैसी अनहोनी----
कि पुण्य की इच्छा नहीं,न फ़ल की लालसा बाकी
यह दूधिया श्वेत मेरे इश्क का  घोड़ा
मारा नही जाता--- मारा नही जाता
बस यही सलामत रहे,पूरा रहे!
मेरा अश्वमेघ यज्ञ अधूरा है,अधूरा रहे !

साभारः--अमॄता प्रीतम

1 comment:

  1. कुछ दिन पहले ही कविता कोष पे इस कविता को पढ़ा...उस समय भी अच्छा लगा था, आज भी..
    अच्छा ब्लॉग शुरू किया है आपने...संकलन..अच्छी अच्छी कविताओं, नज्मों का संकलन कीजिये..

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