Monday, March 28, 2011

मोहब्बत की मोहब्बत तक ही जो दुनिया समझते हैं..

मोहब्बत की मोहब्बत तक  ही जो दुनिया समझते हैं 
खुदा  जाने  वो   क्या समझे  हुए  हैं  क्या  समझते हैं 

जमाले - रंगों - बू  तक  हुस्न  की  दुनिया  समझते हैं 
जो सिर्फ इतना समझते हैं वो आखिर क्या समझते हैं 

कमाले - तश्नगी  ही  से  बुझा  लेते  हैं   प्यास   अपनी
इसी  तपते  हुए  सहरा   को   हम  दरिया  समझते  हैं

हम,उनका इश्क कैसा , उनके गम के भी नहीं काबिल 
ये   उनकी   मेहरबानी   है  कि  वो  ऐसा   समझते   हैं 

मोहब्बत  में  नहीं   सैरे - मनाजिर   की  हमें   परवाह 
हम  अपने हर  नफ़स को इक नयी दुनिया समझते हैं 

ख़बर   इसकी  नहीं  उन  खामकाराने - मोहब्बत  को 
उसी  को  दुःख  भी  देते  हैं  जिसे  अपना  समझते हैं 

                         साभार :जिगर मुरादाबादी 
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सैरे-मनाजिर =दृश्य देखने की 
नफ़स = श्वास 
खामकाराने-मोहब्बत =प्रेम में अपरिपक्व व्यक्ति 
  

1 comment:

  1. जिगर मुरादाबादी की बात ही क्या ? सुंदर पोस्ट । शुभकामनाएं

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