मोहब्बत की मोहब्बत तक ही जो दुनिया समझते हैं
खुदा जाने वो क्या समझे हुए हैं क्या समझते हैं
जमाले - रंगों - बू तक हुस्न की दुनिया समझते हैं
जो सिर्फ इतना समझते हैं वो आखिर क्या समझते हैं
कमाले - तश्नगी ही से बुझा लेते हैं प्यास अपनी
इसी तपते हुए सहरा को हम दरिया समझते हैं
हम,उनका इश्क कैसा , उनके गम के भी नहीं काबिल
ये उनकी मेहरबानी है कि वो ऐसा समझते हैं
मोहब्बत में नहीं सैरे - मनाजिर की हमें परवाह
हम अपने हर नफ़स को इक नयी दुनिया समझते हैं
ख़बर इसकी नहीं उन खामकाराने - मोहब्बत को
उसी को दुःख भी देते हैं जिसे अपना समझते हैं
साभार :जिगर मुरादाबादी
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सैरे-मनाजिर =दृश्य देखने की
नफ़स = श्वास
खामकाराने-मोहब्बत =प्रेम में अपरिपक्व व्यक्ति
जिगर मुरादाबादी की बात ही क्या ? सुंदर पोस्ट । शुभकामनाएं
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