मैंने अलगनी पर टांग दीं हैं
अपनी कुछ उदासियाँ
वो उदासियाँ
जो गाहे बगाहे लिपट जाती हैं मुझसे
बिना किसी बात के ही
और फिर जकड लेती हैं इस कदर
कि छुड़ाए नहीं छूटतीं
ये यादों की, ख़्वाबों की
मिटटी की खुश्बू की उदासियाँ
वो बथुआ के परांठों पर
गुड़ रख सूंघने की उदासियाँ
और खेत की गीली मिटटी पर बने
स्टापू की लकीरों की उदासियाँ
खोलते ही मन की अलमारी का पल्ला
भरभरा कर गिर पड़तीं हैं मुझपर
और सिर तक ढांप लेती हैं मुझे
भारी पलकों से उन्हें फिर
समेटा भी तो नहीं जाता
तो कई कई दिन तक उन्हीं के तले
दबी, ढकी, पसरी रहती हूँ.
इसलिए अब उन्हें करीने से
मन के कोने की एक अलगनी में टांग दिया है
कि एक झलक हमेशा मिलती रहे चुपचाप
अब वो भी सुकून से हैं और मैं भी।
शिखा जी बेहद दिल को छू लेने वाली प्रस्तुति से भेंट करवाने के लिए आभार.
ReplyDeleteआपके बाकी ब्लॉग भी देखे अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आना क भी फुरसत में फिर आती हूँ
badhiyaa
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, मटर और पनीर - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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ReplyDeleteमेरी उदासियाँ कुछ सुकून पा गईं यहाँ आकर :)
ReplyDeleteसुन्दर औएर संवेदनशील रचना है शिखा जी की ... आभार साझा करने के लिए ...
ReplyDeleteउदासियों को अलगनी पर टांगना बेहद भाया।
ReplyDeleteभावुक करती रचना।
सुन्दर शब्द रचना
ReplyDeleteअति सुन्दर
ReplyDeleteउदासियों को अपने से दूर कर कर ही हम आगे बढ़ सकते है। सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteउदासियों को अपने से दूर कर कर ही हम आगे बढ़ सकते है। सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteअद्वितीय रचना, सीखा जी की ।इसके लिए निवेदिता जी को धन्यवाद।
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