तुम दीवाली बन कर जग का तम दूर करो ,
मैं होली बन कर बिछड़े ह्रदय मिलाऊंगा !
सूनी है मांग निशा की चन्दा उगा नहीं
हर द्वार पड़ा खामोश सवेरा रूठ गया ,
है गगन विकल,आ गया सितारों का पतझर
तम ऐसा है कि उजाले का दिल टूट गया ,
तुम जाओ घर-घर दीपक बन कर मुस्काओ
मैं भाल - भाल पर कुंकुम बन लग जाऊंगा !
तुम दीवाली बन कर जग का तम दूर करो ,
मै होली बन कर बिछड़े ह्रदय मिलाऊंगा !!
कर रहा नृत्य विध्वंस ,सृजन के थके चरण ,
संस्कृति की इति हो रही , क्रुद्ध हैं दुर्वासा
बिक रही द्रौपदी नग्न खड़ी चौराहे पर
पढ़ रहा किन्तु साहित्य सितारों की भाषा ,
तुम गा कर दीपक राग जगा दो मुर्दों को
मैं जीवित को जीने का अर्थ बताऊंगा !
तुम दीवाली बन कर जग का तम दूर करो
मैं होली बन कर बिछड़े ह्रदय मिलाऊंगा !!
इस कदर बढ़ रही है बेबसी बहारों की
फूलों को मुस्काना तक मना हो गया है ,
इस तरह हो रही पशुता की पशु - क्रीड़ा
लगता है दुनिया से इंसान खो गया है ,
तुम जाओ भटकों को रास्ता बताओ
मैं इतिहासों को नए सफे दे जाऊंगा !
तुम दीवाली बन कर जग का तम दूर करो
मैं होली बन कर बिछड़े ह्रदय मिलाऊंगा !!
साभार : नीरज
wah wah ...jai ho mangalmay ho
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर आह्वान्।
ReplyDeleteJabardast ... sundar rachna ...
ReplyDeleteभावपूर्ण, प्रवाहमयी , प्रेम और जागरण का सन्देश देती सुन्दर कृति ...
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