जुदा हों यार से हम और न हो रक़ीब जुदा
है अपना - अपना मुकद्दर जुदा ,नसीब जुदा
तिरी गली से निकलते ही अपना दम निकला
रहे हैं क्योंकि गुलिस्ता से अंदलीब जुदा
फ़िराके-ख़ुल्द से गंदुम है सीना-चाक अब तक
इलाही हो न हो वतन से कोई ग़रीब जुदा
करें जुदाई का किस-किस का रंज हम ऐ "ज़ौक"
कि होने वाले हैं हम सबसे अनक़रीब जुदा
-"ज़ौक"
है अपना - अपना मुकद्दर जुदा ,नसीब जुदा
तिरी गली से निकलते ही अपना दम निकला
रहे हैं क्योंकि गुलिस्ता से अंदलीब जुदा
फ़िराके-ख़ुल्द से गंदुम है सीना-चाक अब तक
इलाही हो न हो वतन से कोई ग़रीब जुदा
करें जुदाई का किस-किस का रंज हम ऐ "ज़ौक"
कि होने वाले हैं हम सबसे अनक़रीब जुदा
-"ज़ौक"
बहुत खूब लिखा है |बधाई
ReplyDeleteजुदा हों यार से हम और न हो रक़ीब जुदा
ReplyDeleteहै अपना - अपना मुकद्दर जुदा ,नसीब जुदा
ये खास अदा जौंक साहब की
बहुत सुंदर
क्या कहने
एक बेहतरीन ग़ज़ल पढ़वाने का शुक्रिया।
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