Wednesday, May 23, 2012

"गॄहकाज"

आज रहने दो यह  गृहकाज 
प्राण !रहने दो यह गृहकाज !

आज   जाने   कैसी   वातास 
छोडती सौरभ-श्लथ उछवास,
प्रिये ,लालस-सालस वातास ,
जगा रोओं में सौ  अभिलाष !

आज उर के स्तर-स्तर में प्राण !
सहज सौ-सौ स्मृतियाँ सुकुमार ,
दृगों   में   मधुर  स्वप्न   संसार ,
मर्म  में  मदिर  स्पृहा  का  भार !

शिथिल,स्वप्निल पंखडियां खोल ,
आज   अपलक   कलिकाएँ  बाल ,
गूंजता   भूला    भौंरा    डोल,
सुमुखी ,उर के सुख से  वाचाल !

आज   चंचल - चंचल   मन   प्राण ,
आज रे ,शिथिल-शिथिल तन-भार ,
आज  दो  प्राणों  का  दिन - मान 
आज  संसार  नहीं  संसार  !
आज क्या प्रिये सुहाती लाज !
आज रहने  दो  सब  गृहकाज !

                 साभार : सुमित्रानंदन पन्त 

9 comments:

  1. क्षमा सहित
    आदरणीय पन्त जी
    को नमन

    मन्त्र-मुग्ध पढता गया, शब्द-अब्द नि:शब्द |
    काम घरेलू छोड़ दो, गिरा गिरा मन गद्द |

    गिरा गिरा मन गद्द , भला सुनने में लागे |
    लेकिन पति श्री पन्त, काम जब बाकी आगे |

    कैसे कोई नार, करे सपनों में विचरण |
    ख़तम करूंगी काम, काम का देखूं दर्पण ||


    http://dineshkidillagi.blogspot.in/2012/05/blog-post_23.html

    ReplyDelete
  2. काश मेरे प्रियतम भी यही कहते :-) शुक्रिया

    ReplyDelete
  3. मित्रों चर्चा मंच के, देखो पन्ने खोल |

    आओ धक्का मार के, महंगा है पेट्रोल ||

    --

    शुक्रवारीय चर्चा मंच

    ReplyDelete
  4. भला ऐसे भी कहते हैं कभी :)

    ReplyDelete
  5. वाह! खूबसूरत...
    सादर आभार।

    ReplyDelete
  6. बेहतरीन प्रस्तुति

    ReplyDelete
  7. बहुत बढ़िया प्रस्तुति

    ReplyDelete
  8. आज 23/07/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    ReplyDelete