आज रहने दो यह गृहकाज
प्राण !रहने दो यह गृहकाज !
आज जाने कैसी वातास
छोडती सौरभ-श्लथ उछवास,
प्रिये ,लालस-सालस वातास ,
जगा रोओं में सौ अभिलाष !
आज उर के स्तर-स्तर में प्राण !
सहज सौ-सौ स्मृतियाँ सुकुमार ,
दृगों में मधुर स्वप्न संसार ,
मर्म में मदिर स्पृहा का भार !
शिथिल,स्वप्निल पंखडियां खोल ,
आज अपलक कलिकाएँ बाल ,
गूंजता भूला भौंरा डोल,
सुमुखी ,उर के सुख से वाचाल !
आज चंचल - चंचल मन प्राण ,
आज रे ,शिथिल-शिथिल तन-भार ,
आज दो प्राणों का दिन - मान
आज संसार नहीं संसार !
आज क्या प्रिये सुहाती लाज !
आज रहने दो सब गृहकाज !
साभार : सुमित्रानंदन पन्त
क्षमा सहित
ReplyDeleteआदरणीय पन्त जी
को नमन
मन्त्र-मुग्ध पढता गया, शब्द-अब्द नि:शब्द |
काम घरेलू छोड़ दो, गिरा गिरा मन गद्द |
गिरा गिरा मन गद्द , भला सुनने में लागे |
लेकिन पति श्री पन्त, काम जब बाकी आगे |
कैसे कोई नार, करे सपनों में विचरण |
ख़तम करूंगी काम, काम का देखूं दर्पण ||
http://dineshkidillagi.blogspot.in/2012/05/blog-post_23.html
काश मेरे प्रियतम भी यही कहते :-) शुक्रिया
ReplyDeleteमित्रों चर्चा मंच के, देखो पन्ने खोल |
ReplyDeleteआओ धक्का मार के, महंगा है पेट्रोल ||
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शुक्रवारीय चर्चा मंच ।
भला ऐसे भी कहते हैं कभी :)
ReplyDeletesirf aaj hi rahne de ?
ReplyDeletebaki din......?
वाह! खूबसूरत...
ReplyDeleteसादर आभार।
बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteआज 23/07/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!