Friday, March 8, 2013

किराये का है ये मकां ........ - कुंअर बेचैन

किराये का है ये मकां छोड़ते हैं । 
ऐ मालिक ,तेरा ये जहां छोड़ते हैं । 

ये क्यूँ कह दिया इश्क़ को छोड़ दें हम , 
लो हम जिस्म से अपनी जां छोड़ते हैं । 

तो ये जानिये बाग़ में कुछ कमी है ,
परिंदे अगर आशियां छोड़ते हैं । 

भले ही वो केंचुल बदल कर भी आएं  ,
मगर लोग डंसना कहां छोड़ते हैं । 

किसी के मुबारक कदम लफ्ज़ बनकर ,
मेरी हर गज़ल में निशां छोड़ते हैं । 

कहां ऐसे बेटों को खुशियां मिलेंगी ,
जो रोती हुई अपनी मां छोड़ते हैं । 

न तू हीर है और न रांझा हूं मैं ही ,
चलो ,फिर भी एक दास्तां छोड़ते हैं । 

बड़े लोग भी बादलों की तरह ही ,
जमीं के लिए आस्मां छोड़ते हैं । 

उजाले जो दें उनकी कालिख न देखो ,
कि जलते दिये भी धुंआ छोड़ते हैं । 
                               - कुंअर बेचैन  

1 comment:

  1. बढ़िया प्रस्तुति है आदरेया-

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