Tuesday, March 11, 2014

चैतन्य आलोक ...... इस पूरी यात्रा ,में तुम्हें क्या मिला

वो मेरी तुमसे पहली पहचान थी
जब मैं जन्मा भी न था
मैं गर्भ में था तुम्हारे
और तुम सहेजे थीं मुझे.

फिर मृत्यु सी पीड़ा सहकर भी
जन्म दिया तुमने मुझे
सासें दींदूध दियारक्त दिया तुमने मुझे.

और जैसे तुम्हारे नेह की पतवार
लहर लहर ले आयी जीवन में

तुम्हारी उंगली को छूकर
तुमसे भी ऊँचा होकर
एक दिन अचानक
तुमसे अलग हो गया मैं.

और जिस तरह नदी पार हो जाने पर
नाव साथ नहीं चलती
मुझे भी तुम्हारा साथ अच्छा नहीं लगता था
तुम्हारे साथ मैं खुद को दुनिया को बच्चा दिखता था.

बचपन के साथ तुम्हें भी खत्म समझ लिया मैने
और तब तुम मेरे साथ बराबर की होकर आयीं थीं..

बादलों पर चलते
ख्याब हसीं बुनते
हम कितना बतियाते थे चोरी के उन लम्हों में
दुनिया भर की बातें कर जाते थे

मै तुम पर कविता लिखता था
खुद को पुरूरवा
तुम्हें उर्वशी” कहता था.

और जैसा अक्सर होता है
फिर एक रोज़
तुम्हारे पुरूरवा” को भी ज्ञान प्राप्त हो गया
वो उर्वशी” का नहीं लक्ष्मी का दास हो गया

तुम फिर आयीं मेरे जीवन में
मैने फिर तुम्हारा साथ पाया

वह तुम्हारा समर्पण ही था
जिसने चारदीवारी को घर बना दिया
पर व्यवहार कुशल मैं
सब जान कर भी खामोश रह गया

और उन्मादी रातों में
तुम जब नज़दीक होती
यह पुरूरवा”, “वात्सायन” बन जाता
खेलता तुम्हारे शरीर से और रह जाता था अछूत
तुम्हारी कोरी भावनाऑ से

सोचता हूं ?
इस पूरी यात्रा में
तुम्हें क्या मिला
क्या मिला

एक लाल
और फिर यही सब .....

और जब तुमने लाली को जना था
तो क्यों रोयीं थीं तुम
क्यों रोयीं थीं???

                     -    चैतन्य आलोक 
साभार सलिल भैया के ब्लॉग से 




No comments:

Post a Comment