Sunday, March 9, 2014

मिर्ज़ा ग़ालिब ................. जा़हिर है तेरा हाल सब उन पर

घर जब बना लिया तिरे दर पर, कहे बिग़ैर
जानेगा अब तू न मिरा घर कहे बिग़ैर

कहते हैं, जब रही न मुझे ताक़ते सुख़न       
जानूं किसी के दिल की मैं क्योंकर, कहे बिगै़र

काम उससे आ पड़ा है, कि जिस का जहान में
लेवे न कोई नाम, सितमगर कहे बिग़ैर 

जी ही में कुछ नहीं है हमारे वगरना हम
सर जाये या रहे, न रहें पर कहे बिगै़र   

छोड़ूंगा मैं न, उस बूते- काफ़िर का पूजना
छोड़े न खल्क़ गो मुझे काफिर कहे बिगैर

मक़सद है नाजो़-गम्जा, वले गुफ्तगू में, काम
चलता नहीं है दश्न-ओ-खंजर कहे बिग़ैर

हरचंद, हो मुशाहिद-ए-हक़  की गुफ़्तुगू
बनती नहीं है, बादा-ओ-सागर कहे बिगैर

बहरा हूं मैं, तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात  
सुनता नहीं हूं बात, मुकर्रर  कहे बिग़ैर

‘ग़ालिब’, न कर हुजूर में तू बार-बार अर्ज़
जा़हिर है तेरा हाल सब उन पर, कहे बिग़ैर ................ मिर्ज़ा ग़ालिब

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सुख़नः-       वाक शक्ति 
मुशाहिद-ए-हक़ः- सत्य या परमात्मा
इल्तिफ़ातः-     कृपा
मुकर्ररः-      दुआ 

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