ओक में भर लिया था
तुम्हारा प्रेम
मैंने,
रिसता रहा बूँद-बूँद
उँगलियों की दरारों के बीच से |
बह ही जाना था उसे
प्रेम जो था !
रह गयी है नमी सी
हथेलियों पर
और एक भीनी
जानी पहचानी महक
प्रेम की |
ढांपती हूँ जब कभी
हथेलियों से
अपना उदास चेहरा,
मुस्कुरा उठती हैं तुम्हारी स्मृतियाँ
और मैं भी !
कि लगता है
वक्त के साथ
रिस जाती हैं धीरे धीरे
मन की दरारों से
पनीली उदासियाँ भी | ......... अनुलता
हाँ वक्त के साथ सब रीता हो जाता है.......
ReplyDeleteशुक्रिया निवेदिता <3
ReplyDeleteअपनी रचना को आपके ब्लॉग पर पढ़ना सुखद है !!
सस्नेह
अनु
अभिव्यक्ति भी
ReplyDeleteअनुभूति भी...!
बहुत सुन्दर...
एक बार पुन: पढ़वाने के लिये आभार
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