शगुफ्तगी का लताफ़त का शाहकार हो तुम
फ़क़त बहार नहीं, हासिल-बहार हो तुम
जो एक फूल में है क़ैद, वो गुलसितां हो
जो इक कली में है पिन्हां वो लालाज़ार हो तुम
हलावतों की तमन्ना, मलाहतों की मुराद
गुरुर कलियों का, फूलों का इंकिसार हो तुम
जिसे तरंग में फ़ितरत ने गुनगुनाया है
वो भैरवी हो, वो दीपक हो, वो मल्हार हो तुम
तुम्हारे जिस्म में खबीदा हज़ारों राग
निगाह छेड़ती है जिसको वो सितार हो तुम
जिसे उठा न सकी जुस्तजू वो मोती हो
जिसे न गूंध सकी आरज़ू वो हार हो तुम
जिसे न बूझ इश्क़ वो पहेली हो
जिसे समझ न सका प्यार भी वो प्यार हो तुम
खुदा किसी दामन में जज़्ब हो न सकें
ये मेरे अश्के-हसीं जिनसे आशकार हो तुम ........... कैफ़ी आज़मी
फ़क़त बहार नहीं, हासिल-बहार हो तुम
जो एक फूल में है क़ैद, वो गुलसितां हो
जो इक कली में है पिन्हां वो लालाज़ार हो तुम
हलावतों की तमन्ना, मलाहतों की मुराद
गुरुर कलियों का, फूलों का इंकिसार हो तुम
जिसे तरंग में फ़ितरत ने गुनगुनाया है
वो भैरवी हो, वो दीपक हो, वो मल्हार हो तुम
तुम्हारे जिस्म में खबीदा हज़ारों राग
निगाह छेड़ती है जिसको वो सितार हो तुम
जिसे उठा न सकी जुस्तजू वो मोती हो
जिसे न गूंध सकी आरज़ू वो हार हो तुम
जिसे न बूझ इश्क़ वो पहेली हो
जिसे समझ न सका प्यार भी वो प्यार हो तुम
खुदा किसी दामन में जज़्ब हो न सकें
ये मेरे अश्के-हसीं जिनसे आशकार हो तुम ........... कैफ़ी आज़मी
No comments:
Post a Comment