Sunday, August 14, 2011

मर के भी कब तक निगाहे - शौक़ को रुसवा करें ...........

मर के  भी  कब  तक  निगाहें -शौक़  को  रुसवा करें 
ज़िन्दगी तुझ को  कहाँ  फैंक आयें ,आखिर क्या करें

ज़ख्मे-दिल  मुमकिन  नहीं तो चश्मे-दिल ही वा करें१ 
वो    हमें    देखें   न    देखें   हम   उन्हें    देखा   करें 

ऐ  मैं  कुर्बां  मिल  गया  अर्जे-मोहब्बत   का  सिला 
हाँ  उसी  अंदाज़  से  कह  दो ,तो फिर हम क्या करें

देखिये   क्या   शोर   उठता   है   हरीमे - नाज़   से२ 
सामने  आईना  रख  कर  ख़ुद  को इक सिज्दा करें

हाए  ये   मजबूरियां   , महरूमियां   ,  नाकामियां
इश्क़ आखिर इश्क़ है ,तुम क्या करो ,हम क्या करें

                                            - जिगर मुरादाबादी 
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१:मन के नेत्र ही खोलें
२:प्रेयसी के घर की चारदीवारी से

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