उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
बरसो, बरसो, भरें रंग से निखिल प्राण-मन हे!
भींगे भुवन सुधा-वर्षण में,
उगे इन्द्र-धनुषी मन-मन में;
भूले क्षण भर व्यथा समर-जर्जर विषण्ण जन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
गरजे गुरु-गंभीर घनाली,
प्रमुदित उड़ें मराल-मराली,
खुलें जगत के जड़ित-अन्ध रस के वातायन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
बरसे रिम-झिम रंग गगन से,
भींगे स्वप्न निकल मन-मन से,
करे कल्पना की तरंग पर मानव नर्तन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
जय हो, रंजित धनुष बढ़ाओ,
भू को नभ के साथ मिलाओ,
भरो, भरो, भू की श्रुति में निज अनुरंजन स्वन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
"दिनकर"
बरसो, बरसो, भरें रंग से निखिल प्राण-मन हे!
भींगे भुवन सुधा-वर्षण में,
उगे इन्द्र-धनुषी मन-मन में;
भूले क्षण भर व्यथा समर-जर्जर विषण्ण जन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
गरजे गुरु-गंभीर घनाली,
प्रमुदित उड़ें मराल-मराली,
खुलें जगत के जड़ित-अन्ध रस के वातायन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
बरसे रिम-झिम रंग गगन से,
भींगे स्वप्न निकल मन-मन से,
करे कल्पना की तरंग पर मानव नर्तन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
जय हो, रंजित धनुष बढ़ाओ,
भू को नभ के साथ मिलाओ,
भरो, भरो, भू की श्रुति में निज अनुरंजन स्वन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
"दिनकर"
एक उत्कृष्ट रचना पढ़वाने के लिए आभार...
ReplyDeleteअच्छी रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर