यह कुटुंब, धन, धाम कहाँ है , अरे साथ जाने वाला
जिसके पीछे तूने पागल , क्या अनर्थ न कर डाला
नित्य देखता है तू फिर भी , जान बूझकर फंसता है
"जग जाने " पर ही यह जग है , सो जाने पर बधशाला.
जितना ऊँचा उठना चाहे , उठ जाये उठने वाला
नभ चुम्बी इन प्रासादों को , अंत गर्त में ही डाला
जहाँ हिमालय आज खड़ा है , वहां सिधु लहराता था
लेती है जब करवट धरती, खुल जाती है बधशाला
खिसक हिमालय पड़े सिन्धु में , लग जाये भीषण ज्वाला
गिरे ! टूट नक्षत्र भूमि नभ , टुकड़े टुकड़े कर डाला
अरे कभी मरघट में जाकर , सुना नहीं प्रलयंकर गान
ब्रम्ह सत्य है ! और सत्य है , विश्व नहीं ये बधशाला
पहली बार आई आपके इस ब्लॉग पर निवेदिता जी ....बहुत सुन्दर संकलन है ....
ReplyDeleteआज की आशीष भाई की कविता भी उत्कृष्ट ....
साधुवाद ....
आपका ब्लॉग भी ज्वाइन कर लिया है ....आभार .
उत्कृष्ट ...आभार पढवाने का
ReplyDeleteकमाल है आशीष जी की ये पूरी श्रृंखला..............
ReplyDeleteशुक्रिया निवेदिता
सस्नेह
अनु
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन गूगल की नई योजना "प्रोजेक्ट लून"....ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteब्रम्ह सत्य है ! और सत्य है , विश्व नहीं ये बधशाला.................
ReplyDeleteवाह.......
बहुत गुमान था,नदियों को बांधते, मानव
ReplyDeleteकेदार ऐ खौफ में ही, उम्र, गुज़र जायेगी !
बहुत आभार आपका
ReplyDeleteशुक्रिया अनुमति देने का .....
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