Wednesday, June 19, 2013

आशीष राय - बधशाला

यह कुटुंब, धन, धाम कहाँ है , अरे साथ जाने वाला
जिसके पीछे तूने पागल , क्या अनर्थ न कर डाला
नित्य देखता है तू फिर भी , जान बूझकर फंसता है
"जग जाने " पर ही यह जग है , सो जाने पर बधशाला.

जितना ऊँचा उठना चाहे , उठ जाये उठने वाला
नभ चुम्बी इन प्रासादों को , अंत गर्त में ही डाला
जहाँ हिमालय आज खड़ा है , वहां सिधु लहराता था
लेती है जब करवट धरती, खुल जाती है बधशाला

खिसक हिमालय पड़े सिन्धु में , लग जाये भीषण ज्वाला
गिरे ! टूट नक्षत्र भूमि नभ , टुकड़े टुकड़े कर डाला
अरे कभी मरघट में जाकर , सुना नहीं प्रलयंकर गान
ब्रम्ह सत्य है ! और सत्य है , विश्व नहीं ये बधशाला
                                                                -आशीष राय 

8 comments:

  1. पहली बार आई आपके इस ब्लॉग पर निवेदिता जी ....बहुत सुन्दर संकलन है ....
    आज की आशीष भाई की कविता भी उत्कृष्ट ....
    साधुवाद ....

    आपका ब्लॉग भी ज्वाइन कर लिया है ....आभार .

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  2. उत्कृष्ट ...आभार पढवाने का

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  3. कमाल है आशीष जी की ये पूरी श्रृंखला..............
    शुक्रिया निवेदिता

    सस्नेह
    अनु

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन गूगल की नई योजना "प्रोजेक्ट लून"....ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  5. ब्रम्ह सत्य है ! और सत्य है , विश्व नहीं ये बधशाला.................
    वाह.......

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  6. बहुत गुमान था,नदियों को बांधते, मानव
    केदार ऐ खौफ में ही, उम्र, गुज़र जायेगी !

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  7. बहुत आभार आपका

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