प्रेम न खेती उपजै, प्रेम न हाट बिकाय !
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाय !!
जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान !
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण !!
जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश !
जो है जा की भावना सो ताहि के पास !!
प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय !
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय !!
प्रेम भाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाये !
चाहे घर में बास कर, चाहे बन को जाए !!
---- कबीर
बहुत खूब !खूबसूरत रचना,। सुन्दर एहसास .
ReplyDeleteशुभकामनाएं.