आराधना 'मुक्ति' ....... मेरे दोस्त
मैं खुद को आज़ाद तब समझूँगी
जब सबके सामने यूँ ही
लगा सकूँगी तुम्हें गले से
इस बात से बेपरवाह कि तुम एक लड़के हो,
फ़िक्र नहीं होगी
कि क्या कहेगी दुनिया?
या कि बिगड़ जायेगी मेरी 'भली लड़की' की छवि,
चूम सकूँगी तुम्हारा माथा
बिना इस बात से डरे
कि जोड़ दिया जाएगा तुम्हारा नाम मेरे नाम के साथ
और उन्हें लेते समय
लोगों के चेहरों पर तैर उठेगी कुटिल मुस्कान
जब मेरे-तुम्हारे रिश्ते पर
नहीं पड़ेगा फर्क
तुम्हारी या मेरी शादी के बाद,
तुम वैसे ही मिलोगे मुझसे
जैसे मिलते हो अभी,
हम रात भर गप्पें लड़ाएँगे
या करेंगे बहस
इतिहास-समाज-राजनीति और संबंधों पर,
और इसेतुम्हारे या मेरे जीवनसाथी के प्रति
हमारी बेवफाई नहीं माना जाएगा
वादा करो मेरे दोस्त!
साथ दोगे मेरा,भले ही ऐसा समय आते-आते
हम बूढ़े हो जाएँ,या खत्म हो जाएँ कुछ उम्मीदें लिए
उस दुनिया में
जहाँ रिवाज़ है चीज़ों को साँचों में ढाल देने का,
दोस्ती और प्यार को
परिभाषाओं से आज़ादी मिले ........ आराधना 'मुक्ति'
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अलविदा मारुति - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
मुक्ति की बातों और विचारों का मै6 सदा प्रशंसक रहा हूँ. इस कविता में भी उसके वही तेवर दिखाई दे रहे हैं.. लेकिन एक बात, सिर्फ एक बात अखरती है... "मैं ख़ुद को आज़ाद तब समझूँगी" कभी उद्देश्य नहीं होना चाइए... बहुत सारी "मैं" तो व्यक्तिगत रूप से आज भी आज़ाद हैं. आवश्यकता है ऐसा वातावरण, ऐसा समाज बनाने की जहाँ "मैं" नहीं "हम ख़ुद को आज़ाद तब समझेंगीं" का माहौल बने!!
ReplyDeleteमेरी भी परमात्मा से यही दुआ है कि ऐसा समाज मिले!! आमीन!!!