Thursday, February 13, 2014

कन्हैयालाल नंदन ....... जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है

सुनो,
अब जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है
तो मुझे तुम्हारी आंखों में
ठिठके हुये बेचैन समंदर की याद आती है।
और जब भी वह बेचैनी
कभी फ़ूटकर बही है
मैंने उसकी धार के एक-एक मोती को हथेलियों में चुना है
और उनकी ऊष्मा में
तुम्हारे अन्दर की ध्वनियों को बहुत नजदीक से सुना है।
अंगुलियों को छू-छूकर
संधों से सरक जाती हुई
आंसुओं की सिहरन
जैसे आंसू न हो
कोई लगभग जीवित काल-बिन्दु हो
जो निर्वर्ण,
नि:शब्द
अंगुलियों के बीच से सरक जाने की कोशिश कर रहा हो
किसी कातर छौने-सा।
और अब अपनी उंगलियों को सहलाते हुये
समय
मुझे साफ़ सुनाई देने लगा है।
इसीलिये जब भी तुम्हारा दुख फ़ुटकर बहा है
मैंने उसे अपनी हथेलियों में सहेजा।
भले ही इस प्रक्रिया में
समय टूट-टूट कर लहूलुहान होता रहा
लेकिन तुम्हे सुनने के लालच में
मेरे इन हाथों ने
इस कष्टकर संतुष्टि को बार-बार सहा है।
और अब जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है
तो रफ़्तार की बंदी बेचैनी
मेरी हथेलियों में एक सिहरन भर जाती है।
अब जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है……..।
कन्हैयालाल नंदन

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