तप रे , मधुर-मधुर मन !
विश्व-वेदना में तप प्रतिपल ,
जग-जीवन की ज्वाला में गल ,
बन अकलुष ,उज्ज्वल औ कोमल
तप रे ,विधुर-विधुर मन !
अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम
स्थापित कर जग में अपनापन ,
ढल रे , ढल आतुर मन !
तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन
निज अरूप में भर स्वरूप , मन
मूर्तिमान बन निर्धन !
गल रे , गल निष्ठुर मन !
-सुमित्रानन्दन पन्त
पन्त जी की कविता पढवाने के लिए आभार . कविता के बारे में कुछ कहना सूरज को दीपक दिखाने जैसा होगा .
ReplyDeleteखूबसूरत..........
ReplyDeleteशुक्रिया निवेदिता.
सस्नेह
अनु
पंत जी को पढ़ना ऐसा लगता है कि आज के संदर्भ मे लिखी गई है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना है।
विश्व-वेदना में तप प्रतिपल ,
जग-जीवन की ज्वाला में गल ,
बन अकलुष ,उज्ज्वल औ कोमल
तप रे ,विधुर-विधुर मन !
आपका आभार पंत जी की याद ताजा कराने के लिए
उत्कृष्ट प्रस्तुति...आभार
ReplyDeleteपंत जी की रचना से साक्षात्कार करवाने के लिए आभार |
ReplyDeleteनई पोस्ट:- ओ कलम !!
बढ़िया चयन
ReplyDeleteइस उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए आभार
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