बताता जा रे अभिमानी !
कण-कण उर्वर करते लोचन
स्पंदन भर देता सूनापन
जग का धन मेरा दुःख निर्धन ;
तेरे वैभव की भिक्षुक या
कहलाऊँ रानी !
बताता जा रे अभिमानी !
दीपक सा जलता अन्तस्तल
संचित कर आँसू के बादल
लिपटा है इससे प्रलयानिल ;
क्या यह दीप जलेगा तुझसे
भर हिम का पानी ?
बताता जा रे अभिमानी !
चाहा था तुझमें मिटना भर
दे डाला बनना मिट - मिटकर
यह अभिशाप दिया है या वर ;
पहली मिलन कथा हूँ या मैं
चिर - विरह कहानी !
बताता जा रे अभिमानी !
- महादेवी वर्मा
धन्यवाद आपको .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....
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