आज की रात बड़ी शोख , बड़ी नटखट है
आज तो तेरे बिना नींद नहीं आयेगी ,
आज तो तेरे ही आने का यहाँ मौसम है ,
आज तबियत न ख़यालों से बहल पायेगी !
देख ! वह छत पै उतर आई है सावन की घटा ,
खेल खिड़की से रही आँख - मिचौनी बिजली ,
द्वार हाथों में लिए बांसुरी बैठी है बहार
और गाती है कहीं कुयलिया कजली !
'पीऊ' पपीहे की,यह पुरवाई,यह बादल की गरज
ऐसे नस - नस में तेरी चाह जगा जाती है
जैसे पिंजरे में छटपटाते हुए पंछी को
अपनी आज़ाद उड़ानों की याद आती है !
यह दहकते हुए जुगनू - यह दिये आवारा
इस तरह रीते हुए नीम पै जल उठते हैं
जैसे बरसों से बुझी सूनी पडी आँखों में
ढीठ बचपन के कभी स्वपन मचल उठते हैं !
और रिमझिम यह गुनहगार ,यह पानी की फुहार
यूँ किये देती है गुमराह वियोगी मन को
ज्यूँ किसी फूल की गोदी में पडी ओस की बूँद
जूठा कर देती है भौरों के विकल चुम्बन को !
साभार : नीरज
यह दहकते हुए जुगनू - यह दिये आवारा
ReplyDeleteइस तरह रीते हुए नीम पै जल उठते हैं
जैसे बरसों से बुझी सूनी पडी आँखों में
ढीठ बचपन के कभी स्वपन मचल उठते हैं !...
सुन्दर और भावपूर्ण गीत ।
....बधाई।
bahut hi sunder lyric
ReplyDeletesochta hoon itna sunder kaise likh jata he
badhai
अच्छी अभिव्यक्ति |
ReplyDeleteआशा
आप सबका धन्यवाद .....
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