हाय ! मृत्यु का ऐसा अमर ,अपार्थिव पूजन ?
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन !
संग - सौध में हो श्रृंगार मरण का शोभन ,
नग्न , क्षुधातुर वास विहीन रहें जीवित जन ?
मानव ! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति ?
आत्मा का अपमान ,प्रेत औ छाया से रति !!
प्रेम अर्चना यही , करें हम मरण को वरण ?
स्थापित कर कंकाल ,भरे जीवन का प्रांगण ?
शव को दें हम रूप , रंग , आदर मानव का
मानव को हम कुत्सित चित्र बना दें शव का ?
गत युग के मृत आदर्शों के ताज मनोहर
मानव के मोहान्ध ह्रदय में किए हुए घर ,
भूल गए हम जीवन का सन्देश अनश्वर ,
मृतकों के हैं मृतक , जीवितों का है ईश्वर !
साभार : सुमित्रानंदन पन्त
सुन्दर प्रस्तुति ....अच्छा चयन
ReplyDeleteभूल गए हम जीवन का सन्देश अनश्वर ,
ReplyDeleteमृतकों के हैं मृतक , जीवितों का है ईश्वर !
बहुत मर्मस्पर्शी..बहुत सुन्दर
आभार ....
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