शायरे - फ़ितरत हूं मैं ,जब फ़िक्र फ़रमाता हूं मैं
रूह बन कर ज़र्रे - ज़र्रे में समा जाता हूं
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूं मैं
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूं मैं
जिस क़दर अफसाना-ए-हस्ती को दोहराता हूं मैं
और भी बेगाना - ए - हस्ती हुआ जाता हूं मैं
जब मकानों - लामकां सब से गुज़र जाता हूं मैं
अल्लाह-अल्लाह तुझको खुद अपनी जगह पाता हूं मैं
हाय री मजबूरियां , तर्के - मोहब्बत के लिए
मुझको समझाते हैं वो और उनको समझाता हूं मैं
मेरी हिम्मत देखना , मेरी तबीयत देखना
जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूं मैं
हुस्न को क्या दुश्मनी है , इश्क़ को क्या बैर है
अपने ही क़दमों की खुद ही ठोकर खाता हूं मैं
तेरी महफ़िल तेरे जल्वे फिर तक़ाज़ा क्या ज़रूर
ले उठा जाता हूं जालिम , ले चला जाता हूं मैं
साभार :जिगर मुरादाबादी
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शायरे-फ़ितरत =प्रकृति का शायर
मकानो-लामका =स्थान
पढ़ते हुए लगा था कि यह ग़ज़ल सुनी हुई है ...
ReplyDeleteदेखा तो जिगर मुरादाबादी जी की है ...
शुक्रिया फिर से याद दिलाने के लिए !