ये मुसलमां है , वो हिन्दू , ये मसीही , वो यहूद
इस पे ये पाबंदिया हैं , और उस पर ये क़यूद
शैख़-ओ-पंडित ने भी क्या अहमक बनाया है हमें
छोटे - छोटे तंग खानों में बिठाया है हमें
क़सूर-ए -इंसानी पे ज़ुल्मो -ज़हल बरसाती हुई
झंडिया कितनी नज़र आती हैं लहराती हुई
कोई इस ज़ुल्मत में सूरत ही नहीं नूर की
मुहर हर दिल पे लगी है इक-न-इक दस्तूर की
घटते - घटते मेहरे -आलमताब से तारा हुआ
आदमी है मज़हबो -तहज़ीब का मारा हुआ
कुछ तमददुन के खलफ कुछ दीन के फ़रज़न्द हैं
कुलजमो के रहने वाले बुलबुलों में बंद हैं
फिर रहा है आदमी भूला हुआ भटका हुआ
इक -न - इक लेबिल हर इक माथे पे है लटका हुआ
अपने हमजिंसो के कीने से भला क्या फ़ायदा
टुकडे -टुकडे हो के जीने से भला क्या फ़ायदा
साभार :जोश मलीहाबादी
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क़यूद =बंधन
ज़ुल्मत में =अंधकार में
मेहरे आलमताब से = संसार को प्रकाशमान करने वाले सूर्य से
तमददुन =संस्कृति
खलफ =पुत्र
कुलजमो के = समुद्रों के
हमजिंसो =साथी मनुष्यों
कीने =द्वेष
इस पे ये पाबंदिया हैं , और उस पर ये क़यूद
शैख़-ओ-पंडित ने भी क्या अहमक बनाया है हमें
छोटे - छोटे तंग खानों में बिठाया है हमें
क़सूर-ए -इंसानी पे ज़ुल्मो -ज़हल बरसाती हुई
झंडिया कितनी नज़र आती हैं लहराती हुई
कोई इस ज़ुल्मत में सूरत ही नहीं नूर की
मुहर हर दिल पे लगी है इक-न-इक दस्तूर की
घटते - घटते मेहरे -आलमताब से तारा हुआ
आदमी है मज़हबो -तहज़ीब का मारा हुआ
कुछ तमददुन के खलफ कुछ दीन के फ़रज़न्द हैं
कुलजमो के रहने वाले बुलबुलों में बंद हैं
फिर रहा है आदमी भूला हुआ भटका हुआ
इक -न - इक लेबिल हर इक माथे पे है लटका हुआ
अपने हमजिंसो के कीने से भला क्या फ़ायदा
टुकडे -टुकडे हो के जीने से भला क्या फ़ायदा
साभार :जोश मलीहाबादी
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क़यूद =बंधन
ज़ुल्मत में =अंधकार में
मेहरे आलमताब से = संसार को प्रकाशमान करने वाले सूर्य से
तमददुन =संस्कृति
खलफ =पुत्र
कुलजमो के = समुद्रों के
हमजिंसो =साथी मनुष्यों
कीने =द्वेष
अच्छी प्रस्तुति.......
ReplyDeleteजोश मलीहाबादी को पढ़ना हमेशा सुखद लगता है। एक अच्छी ग़ज़ल प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।
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