Wednesday, February 2, 2011

......."दीने -आदमीयत "........

ये  मुसलमां  है , वो हिन्दू , ये  मसीही , वो यहूद 
इस पे  ये  पाबंदिया  हैं , और  उस  पर  ये  क़यूद


शैख़-ओ-पंडित ने भी क्या अहमक बनाया है हमें 
छोटे -  छोटे   तंग    खानों  में  बिठाया  है    हमें 


क़सूर-ए -इंसानी पे ज़ुल्मो -ज़हल बरसाती  हुई 
झंडिया  कितनी  नज़र  आती  हैं  लहराती  हुई 


कोई  इस  ज़ुल्मत  में  सूरत  ही  नहीं  नूर  की 
मुहर हर दिल पे लगी है इक-न-इक दस्तूर की 


घटते - घटते  मेहरे -आलमताब से तारा हुआ 
आदमी  है  मज़हबो -तहज़ीब  का  मारा  हुआ 


कुछ तमददुन के खलफ कुछ दीन के फ़रज़न्द हैं 
कुलजमो  के   रहने   वाले   बुलबुलों  में   बंद   हैं 


फिर   रहा  है  आदमी   भूला   हुआ  भटका   हुआ 
इक -न - इक लेबिल हर इक माथे पे है लटका हुआ 


अपने हमजिंसो के कीने से भला क्या फ़ायदा 
 टुकडे -टुकडे हो के जीने से भला क्या फ़ायदा 


                    साभार :जोश मलीहाबादी 
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क़यूद =बंधन 
ज़ुल्मत में =अंधकार  में 
मेहरे आलमताब से  = संसार को प्रकाशमान करने वाले सूर्य से 
तमददुन =संस्कृति 
खलफ =पुत्र 
कुलजमो  के = समुद्रों के 
हमजिंसो =साथी मनुष्यों 
कीने =द्वेष 

2 comments:

  1. अच्छी प्रस्तुति.......

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  2. जोश मलीहाबादी को पढ़ना हमेशा सुखद लगता है। एक अच्छी ग़ज़ल प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।

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