क़सम उस मौत की उठती जवानी में जो आती है
उरूसे - नौ को बेवा , मां को दीवाना बनाती है
जहां से झुटपुटे के वक़्त इक ताबूत निकला हो
क़सम उस शब की जो पहले-पहल उस घर में आती है
अज़ीजो की निगाहें ढूढती हैं मरने वालों को
क़सम उस सुब्ह की जो ग़म का ये मंजर दिखाती हैं
क़सम साइल के उस एहसास की जब देख कर उसको
सियाही दफ़अतन कंजूस के माथे पे आती है
क़सम उन आंसुओं की मां की आंखो से जो बहते हैं
जिगर थामे हुए जब लाश पर बेटे की आती है
क़सम उस बेबसी की अपने शौहर के जनाजे पर
कलेजा थाम कर जब ताजा दुल्हन सर झुकाती है
नज़र पड़ते ही इक जीमर्तबा मेहमां के चेहरे पर
क़सम उस शर्म की मुफ़लिस की आंखों में जो आती है
कि ये दुनिया सरासर ख्वाबे और ख्वाबे - परीशां है
'खुशी' आती नहीं सीने में जब तक सांस आती है
साभार : जोश मलीहाबादी
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उरूसे - नौ = नई दुल्हन
ताबूत =अर्थी
साइल के =सवाली के
दफ़तन = एकाएक
जीमर्तबा =धनाढ्य
रौंगटे खडे करने वाली गज़ल पढवाने के लिये हार्दिक आभार्।
ReplyDeleteजोश मलीहाबादी की यह गज़ल वाकई रोंगटे खड़े करने वाली है.
ReplyDeleteसादर
बहुत सुंदर जज़्बात.
ReplyDeletevery very thank you for this.
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