Sunday, February 6, 2011

...........दर्दे -- मुश्तर्क .........

सुनते   हैं   सैलाब  में  डूबा  हुआ  था  इक   दरख्त
जिसकी चोटी पर डरे हुए बैठे थे दो आशुफ़्ता-बख्त


एक  उनमें   सांप  था  और   एक  सहमा  नौजवां 
दो ज़दो  का  एक  भीगी  शाख़  पर  था  आशियां 


सच  है  दर्दे - मुश्तर्क  में   है  वो  रूहे - इत्तिहाद 
इश्क़  में  जिसके बदल जाते  हैं  आईने - इनाद 


लेकिन ऐ गाफ़िल मुसलमानों ! मुदब्बिर हिन्दुओं 
हिंद के सैलाब में  इक  शाख़  पर  तुम  भी  तो  हो 


      साभार : जोश मलीहाबादी 


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दर्दे - मुश्तर्क = साझी पीड़ा 
आशुफ़्ता - बख्त = अभागे 
ज़दो का =आहतो   का
रूहे - इत्तिहाद = संगठन शक्ति 
आईने इनाद = शत्रुता के नियम 
मुदब्बिर = कूटनीतिज्ञ  

1 comment:

  1. साम्प्रदायिक सद्भाव का सन्देश देती a जोश मलीहाबादी की ये पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक हैं.

    सादर

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