सुनते हैं सैलाब में डूबा हुआ था इक दरख्त
जिसकी चोटी पर डरे हुए बैठे थे दो आशुफ़्ता-बख्त
एक उनमें सांप था और एक सहमा नौजवां
दो ज़दो का एक भीगी शाख़ पर था आशियां
सच है दर्दे - मुश्तर्क में है वो रूहे - इत्तिहाद
इश्क़ में जिसके बदल जाते हैं आईने - इनाद
लेकिन ऐ गाफ़िल मुसलमानों ! मुदब्बिर हिन्दुओं
हिंद के सैलाब में इक शाख़ पर तुम भी तो हो
साभार : जोश मलीहाबादी
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दर्दे - मुश्तर्क = साझी पीड़ा
आशुफ़्ता - बख्त = अभागे
ज़दो का =आहतो का
रूहे - इत्तिहाद = संगठन शक्ति
आईने इनाद = शत्रुता के नियम
मुदब्बिर = कूटनीतिज्ञ
जिसकी चोटी पर डरे हुए बैठे थे दो आशुफ़्ता-बख्त
एक उनमें सांप था और एक सहमा नौजवां
दो ज़दो का एक भीगी शाख़ पर था आशियां
सच है दर्दे - मुश्तर्क में है वो रूहे - इत्तिहाद
इश्क़ में जिसके बदल जाते हैं आईने - इनाद
लेकिन ऐ गाफ़िल मुसलमानों ! मुदब्बिर हिन्दुओं
हिंद के सैलाब में इक शाख़ पर तुम भी तो हो
साभार : जोश मलीहाबादी
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दर्दे - मुश्तर्क = साझी पीड़ा
आशुफ़्ता - बख्त = अभागे
ज़दो का =आहतो का
रूहे - इत्तिहाद = संगठन शक्ति
आईने इनाद = शत्रुता के नियम
मुदब्बिर = कूटनीतिज्ञ
साम्प्रदायिक सद्भाव का सन्देश देती a जोश मलीहाबादी की ये पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक हैं.
ReplyDeleteसादर